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ललित के सहयोग से उमाशंकर में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गये। कहां तो वह बिना मोटर के घर से बाहर न निकलता था पर अब यह दशा थी कि ललित के साथ वायु-सेवन के लिए प्रतिदिन कोसों पैदल निकल जाता, सिनेमा देखने का चस्का जाता रहा, व्यक्तिगत विलास सामग्री और प्रदर्शन के व्यसन को भी तिलांजलि दे दी। अंग्रेजी शिक्षा से अब उसे घृणा हो गई।
रविवार के दिन मेरे यहां कुछ मित्रों की गार्डन-पार्टी थी, खूब आनंद रहा। मैं अपने मित्रों के सत्कार में लगा हुआ था। उधर उपेन्द्रकुमार, गोपाल, उमाशंकर और ललित में चुपके-चुपके बातें हो रही थीं। ये लोग क्या बातें कर रहे थे यह बताना कठिन है, क्योंकि प्रथम तो पार्टी की झंझटों में उलझा हुआ था, उनकी ओर अधिक ध्यान न था, दूसरे वे मेरे से दूर थे और धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, बीच-बीच में जब ये लोग खिल-खिलाकर हंस पड़ते तो मुझे भी हंसी आ जाती।
गोपाल बाबू को मैं काफी समय से जानता हूं, रिश्ते में यह सन्तोषकुमार के बहनोई होते हैं। प्रथम श्रेणी के शौकीन प्रेमी स्वभाव के हैं। आज देखा तो कलाई रिस्टवाच से खाली थी, रेशम की कमीज में से सोने के बटन गायब थे, होंठों की लाली गायब, बाल भी फैशन के न थे। मैंने सन्तोषकुमार से धीरे से कहा- "आज तो भाई साहब का कुछ और ही रंग है वह पहली-सी चटक-मटक दिखाई नहीं देती, क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आता।"
सन्तोषकुमार ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- "आजकल इन पर स्वदेशी भूत सवार है। कई महीने से यह इसी रंग में रंगे हुए हैं, क्या आपने आज ही इन्हें इस वेश में देखा है?"
मैंने उत्तर दिया- "हां! और इसीलिए मुझे आश्चर्य भी हुआ।"
सन्तोषकुमार ने किसी सीमा तक उपेक्षा-भाव से कहा- "हमें क्या मतलब? जो जिसके जी में आए करे, बार-बार समझाने पर भी यदि कोई न सुने तो क्या किया जाए। अधिक कहने-सुनने से अपनी प्रतिष्ठा पर आंच आती है। जैसी करनी वैसी भरनी प्रसिध्द है। जब बन्दी-गृह में चक्की पीसनी पड़ेगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा।"
मैंने कहा- "सन्तोषकुमार तुम बिल्कुल सत्य कहते हो, जमाने की हवा कुछ बदली हुई दिखाई देती है। ललित को भी कुछ स्वदेश की सनक है। यद्यपि मैं स्वदेशी का विरोधी हूं और देश-भक्त मुझे एक आंख नहीं भाते तब भी मैं ललित की स्पष्टवादिता और सात्विकता पर मुग्ध हूं। उसकी रुचि मुझे बहुत भाती है।"
सन्तोष कहने लगा- "किन्तु आपकी भांति उसकी धाक नहीं बंध सकती। आप जब पाश्चात्य वस्त्र पहनकर बाहर निकलते होंगे तो अशिक्षित मनुष्य भय से कांप उठते होंगे और अशिक्षित व्यक्ति आपसे नमस्कार करके आकाश पर पहुंच जाते होंगे।"
मुझे हंसी आ गई, सन्तोषकुमार भी हंसने लगा।
उस दिन रात को मैं अचेत सोया हुआ स्वप्न देख रहा था कि किसी ने मुझे झंझोड़ा, मैं चौंक गया। आंखें खोलकर देखता हूं तो मेरा नौकर रामलाल हाथ में लालटेन लिये खड़ा है।
मुख पर हवाइयां उड़ रही हैं, शरीर थर-थर कांप रहा है। मैंने घबराकर मालूम किया- "क्यों रामलाल क्या बात है, तुम कांप क्यों रहे हो?"
रामलाल ने उत्तर दिया- "बाबू, पुलिस ने सारा मकान घेर रखा है, कोई बात समझ में नहीं आती। मैं कोई चोर या बदमाश न था, पुलिस का नाम सुनकर घबरा गया। दो-एक बेईमानियां जो छिपकर की थीं वे आंखों के सामने फिरने लगीं। पूर्ण विश्वास हो गया कि पुलिस मुझे गिरफ्तार करने आई है।"
पुलिस की हलचल सुनकर मेरी चेतना जाती रही। साहस करके नीचे आया। रामलाल बोला- "आज्ञा हो तो दो-चार हाथ दिखाकर पुलिस वालों को पृथ्वी पर लिटा दूं?"
मैंने कहा-"सावधान! भूलकर भी ऐसा न करना, पुलिस से बिगाड़ करना अच्छा नहीं होता।"
द्वार खोल दिया। दो-तीन सार्जेण्टों के साथ एक श्वेत वस्त्रधारी बंगाली और आठ-दस सिपाही कमरे के अन्दर घुस आये।
बंगाली बाबू ने जेब से एक बादामी कागज निकालकर मुझे दिखाते हुए कहा-"यह गिरफ्तारी-वारंट है, आपके यहां विद्रोहियों की गुप्त मंत्रणा का स्थान है। विद्रोही तुरन्त गिरफ्तार किया जाएगा।"
मुझ पर बिजली-सी टूट पड़ी। मैं समझा सम्भवत: मैं ही विद्रोही हूं और मेरी गिरफ्तारी का यह वारंट है, मुझको पुलिस गिरफ्तार करने आई है। आह! अब कुशल नहीं, यदि फांसी से बच रहा तो काला पानी अवश्य भेजा जाऊंगा।"
मैंने कंपकपाते हुए कहा- "विद्रोही और वह भी मेरे मकान में? आप क्या कह रहे हैं। मैं सरकार का शुभाकांक्षी हूं। इसी वर्ष मुझे राय साहब की उपाधि मिली है आपको भ्रम हुआ है।"
एक सार्जेण्ट ने त्योरी बदलकर कहा-"अम काला आदमी नहीं है, गोरा आदमी कभी झूठ नहीं बोल सकता।"
बंगाली बाबू ने तनिक रुष्टता की मुद्रा में कहा- "पुलिस का भ्रम नहीं हो सकता, भ्रम प्राय: डॉक्टरों को हुआ करता है।"
मैंने पूछा- "विद्रोही का नाम क्या है?"
कहा- "शरद्कुमार।"
"बंगाली है?"
"हां।"
"कहां का रहने वाला है?"
"श्री रामपुर का।"
मेरे सिर से जैसे विपत्ति-सी टल गई। नाम सुनते ही होंठों पर हंसी खेलने लगी। मैंने कहा- "महाशय, इस नाम का कोई व्यक्ति मेरे घर में नहीं है।"
"कोई और बंगाली आपके मकान में है?"
"हां, सीधा-साध नवयुवक है जो उमाशंकर को बंगला भाषा पढ़ाता है।"
उस श्वेत वस्त्रधारी बंगाली ने कहा-"हां, उसकी ही खोज है। उसका असली नाम शरद्कुमार है। पुलिस महीनों से उसके पीछे परेशान है, हाथ ही न आता था।"
मैंने आश्चर्य से कहा- "वह तो जिला नदिया का रहने वाला है और आप कहते हैं कि अपराधी श्री रामपुर का निवासी है।"
"सब उसकी चालें हैं, वह श्री रामपुर का निवासी है। उसके पिता का नाम हृदयनाथ है जो एक प्रसिध्द जमींदार हैं।"
मैंने फिर पूछा- "उस पर क्या अपराध है?"
इंस्पेक्टर ने उत्तर दिया- "विद्रोह, एक गुप्त संस्था से उसका संबंध है। बम बनाना, चोरी, डकैती, कत्ल, लूटमार यह उनकी देशसेवा है।"
यह सुनकर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा- "आप महानुभाव एक सत्रह-अठारह वर्ष के बंगाली युवक को विद्रोही बना रहे हैं, यह भला कोई मानने की बात है। एक साधारण युवक की गिरफ्तारी के लिए इतने व्यक्ति!"
चार सिपाही दरवाजे पर खड़े किए गये, घर की तलाशी शुरू हुई। दालान, कोठरी, बैठक, रसोईघर, यहां तक कि दिशा-मैदान तक के स्थान को ढूंढ़ डाला किन्तु ललित का कहीं पता न था। अलबत्ता उसके कमरे में एक कागज का टुकड़ा मिला; पढ़कर सब आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उसमें लिखा हुआ था-
"इंस्पेक्टर साहब
नमस्ते।
मैं फिर भाग रहा हूं। आपके पुलिस वाले समझ गये होंगे कि मैं कितना भयानक व्यक्ति हूं, जरा बचते रहियेगा।
भारत माता का तुच्छ सेवक
शरद"
बंगाली बाबू ने अपने माथे पर हाथ मारकर कहा- "बना बनाया खेल बिगड़ गया, कमबख्त ने चक्मा दे दिया। महीनों की मेहनत पर पानी फिर गया।"
पुलिस निराश होकर वापस चली गई। हम सब भी उमाशंकर के साथ ललित के लिए आंसू बहाने लगे। ललित से हम सबको बहुत अधिक प्रेम था, उसका यह काम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।
महाशय! मैं वही डॉक्टर हूं, मेरी डॉक्टरी बहुत चमक गई है, उमाशंकर मैट्रिक पास कर चुका है, उसकी दशा दिन-प्रतिदिन बदलती जा रही है। यह वही उमाशंकर है जो अपने हाथों गिलास में पानी भी नहीं डालता था, आज वही गरीबों की सेवा के लिए हर समय उद्यत रहता है। ललित के पश्चात् स्वयंसेवक का जीता-जागता चित्र मुझे उमाशंकर ही में दिखाई दिया। एक दिन बैठे-बैठ ललित का ध्यान आ गया, आंखों में आंसू भर आये। उसकी स्मृति से पुराना प्रेम ताजा हो गया। इसी बीच उमाशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में एक अंग्रेजी का अखबार था। मुंह लाल हो रहा था, आंखें डबडबा रही थीं। उसने भर्राई हुई आवाज में कहा- "ललित को आजीवन देश-निकाले का दंड दिया गया है। वह कातिल नहीं था, वह देश का सच्चा सेवक, स्वतंत्रता का पुजारी, सहृदय और सबसे प्रेम का बर्ताव करने वाला मनुष्य था।
"ललित का उद्देश्य कत्ल या लूटमार करना रहा हो या विद्रोह, इसके विषय में मैं कुछ नहीं जानता, मैं उसके स्पष्टवादी स्वभाव और उसकी सादगी का कायल हूं। मुझे उस पर पूर्ण विश्वास था।" उमाशंकर के शब्द सुनकर मेरा हृदय दहल गया। उमाशंकर रोने लगा। मैं भी अधिक न सहन कर सका, मैंने अपने आंसू पोंछे। इसके पश्चात् मैंने कहा- "उमाशंकर ललित को देखने के लिए हृदय विकल है, वह कब तक वापस आयेगा।"
उमाशंकर ने इसका कोई उत्तर न दिया, वह दहाड़ें मार-मारकर रोने लगा। उसकी यह दशा देखकर मुझसे भी सहन न हो सका। दशा भिन्न हो गयी, हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गये, चिन्ता और क्रोध तिलमिलाने और छटपटाने लगा।